ऐसा भी नहीं है कि यह केवल बंगाल में ही हो रहा है। ऐसे लोगों की पौध भारत के हर प्रदेश में लहलहाती नजर आती है। बिना खाद-पानी के भी इस तरह के लोग सदा फलते-फूलते रहते हैं। लगभग हर बार किसी न किसी चुनाव के मौके पर ही दल के साथ इनका दिल परिवर्तन हुआ। इसमें राजनीतिक विचारधारा कभी आड़े नहीं आयी। तभी तो इन सदाबहार मलाईवादियों को न तो भाजपा में जाने से परहेज है और न ही तृणमूल कांग्रेस में। एक अदद चुनावी टिकट के लिए मलाईवाद का यह खेल कोई नया नहीं है। यह खेल वर्षो से चल रहा है।
चुनाव में सबको एडजस्ट करना मुश्किल होता है, लिहाजा टिकट कटने या नहीं मिलने का अंदेशा होते ही मलाईवादी नीति उफान मारने लगती है। ऐसे ही एक नेता का यूनिवर्सल ऑफ द रिकार्ड बयान सुनिए, मैं जिस-जिस पार्टी में गया हूं, उस-उसकी सरकार बनी है। उन्हीं का ऑन द रिकॉर्ड बयान, इस पार्टी में मैं समाज सेवा के लिए आया हूं. (जैसे पुरानी पार्टी ने इनको केवल चमचागीरी के लिए रखा था.) तात्कालिक लाभ के लिए ही सही, ऐसे मौसमी नेताओं को अपने दल में शामिल कराने में इन सत्ता शिरोमणियों को भी कोई गुरेज नहीं होता. इसके पीछे लॉजिक यह दिया जाता है कि इस तरह के लालची नीतिपरक नेता पार्टी में आयेंगे तो पोष (पालतू) मानेंगे. आनेवाले को नयी पार्टी में ईमानदार बताया जाता है, वहीं पुराने उनको रिजेक्ट माल करार देते हैं. खोज-खोज कर ऐसे नेताओं को पार्टी में धूम-धड़ाके के साथ शामिल करवाया जाता है।
इसमें चुनावी गणित और लोहे को लोहे से काटने की नीति का ध्यान रखा जाता है। कल तक जो फलाने नेता का गहरा दोस्त था, नयी पार्टी में उसे उसी के खिलाफ टिकट देकर भिड़ाया जाता है। इससे एक पंथ दो काज होते हैं। विरोधी हार गया तो भी अच्छा, मलाईवादी परिवर्तन की दुहाई देनेवाला हारा तो भी अपनी पार्टी का कुछ ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। माइंड परिवर्तन करनेवाले सभी नेता अपने-अपने तरीके से मलाईवाद के पर्यायवाची शब्दों का चयन कर अपने इस क्रांतिकारी कदमों को सही ठहराते हैं। ऐसे में जनता बेचारी क्या करे, उनके समक्ष मलाईवादियों को वोट देकर मलाई मारने की खुली छूट देने की विवशता जो ठहरी।